शुक्रवार, 15 मई 2020

पुस्तकालय का एक दिन


 मैं हमेशा की तरह पुस्तकालय की किताबों के बीच छुपा बैठा  था| जाने अनजाने मुझे  प्रेमचंद्र जयशंकर प्रसाद निराला  अज्ञेय जी से मिलने का मैंने यही तरीका खोज निकाला था। लाइब्रेरी स्टाफ मेरी इस हरकत का कायल न था। बात कुछ यू थी मेरी  एकांत में पढ़ने की आदत है किसी के सामने मैं पढ़ने लिखने का बचपन से कायल ना था शरत जी की जीवनी पढ़ने से पहले मैं अपने आप को  बहुत ही निरीह प्राणी  समझता था। कोई मुझे देख ना ले इसलिए मै पुस्तकालय में जहां  रद्दी पुस्तके रखी  जाती  हैं उसी के पास एक टूटी धूल भरी कुर्सी वर्षों से अपने ऊपर बैठने वाले का  इंतजार करती रहती थी ।उसकी पीड़ा को समझने वाला मैं पहला व्यक्ति था।
कुर्सी पर बैठने के बाद मैंने शरदचंद्र जी के उपन्यास चरित्रहीन को उठाया ही था पढ़ने के लिए जैसा कि मेरे जीवन में अनेकों बार हुआ है| व्यवधान स्वरूप एक अर्धसरकारी कर्मचारी आ गए।
उन्होंने कहा  आप  इस पुस्तकालय में काम करते हैं?
मैंने कहा जी  नहीं।
आप यहां क्या पढ़ते हैं?
जी मैं यहां हिंदी साहित्य मे अध्ययन कर रहा हूं। क्योंकि मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी हूं।
 तो क्या आप मुझे  इंग्लैंड के इतिहास पर कोई  पुस्तक दिला सकते हैं ?
 क्यों नहीं ?
मैंने अलमारी नंबर  देखा,  फिर मैं उस अलमारीकी तरफ बढ़ता हूं,  लेकिन वहां कोई भी पुस्तक नहीं मिलती है।  मैं निराश होकर पूरे पुस्तकालय की परिक्रमा करता हूं अभी किसी और अलमारी पर  यूरोप के इतिहास नामक  पुस्तक मिलती है जिज्ञासा वश में उसको  पढ़नेलगता हूं। यह आप क्या कर रहे हैं मुझे इंग्लैंड का इतिहास चाहिए  यूरोप का नहीं।
  भाई साहब मैंने कहा इस मे इंग्लैंड के इतिहास के भी कई अध्याय दिए हैं।
 पर मेरा काम होगा नहीं उन्होंने माथा ठोक लिया।
  मैंने पूछा आपको  इंग्लैंड का इतिहास क्यो  चाहिए भारत का क्यो नही ? मेरा बेटा एक  पब्लिक स्कूल में कक्षा 1 में पड़ रहा है जिसको असाइनमेंट बनाना है। वे गुस्से में बोले। मैंने उनकी उत्तर को दो तीन बार दोहरा दिया ।वह गुस्से में 100 -200 गालियां  देने लगे।बच्चे को इंडिया में पैदा कीजिए और असाइनमेंट  इंग्लैंड का बनाइए यह कहां का न्याय है?
 अब वह पूरी तरीके से भावनाओं में बह गए  एक हमारा जमाना था बी० ए०एम० ए ० तो हरे दुपट्टे वाली तेरा नाम तो बता मैं कट  जाया करता था | यह असाइनमेंट  नाम का कोई सवाल ही नहीं था। और अब इनका बस चले तो बच्चों के मां-बाप से उनके पैदा होने का भी असाइनमेंट बनवा ले।
और फिर मेरी तरफ  मुखातिब  होकर कर बोले  तुम पढ़े लिखे गवार हो एक पुस्तक नहीं ढूंढ पाए पूरा दिन लाइब्रेरी से चिपके रहते हो  गधे कहे के निकम्मे ।
मैं आपलक  उनको देख रहा था मानो मैंने कोई गलती कर दी हो उनकी पुस्तक के बारे में उनकी मदद करके।मैं चुप हो गया मानो मैंने अपनी पराजय स्वीकार कर लिया हो। लाइब्रेरी स्टाफ एवं अपने पुत्र के विद्यालय के स्टाफ के माताओं बहनों के  अपमान में आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करते रहे। अंत में उन्होंने मेरे द्वारा दी गई पुस्तक उठाकर  लाइब्रेरी से बाहर निकल गए।एक प्रश्न मैं उनसे पूछना चाहता था किंतू  चाणक्य नीति पढ़ने के कारण पूछ ना सका ।वापस में अपनी कुर्सी में बैठते हुए सोचता हूं कि शरदचंद्र जी का उपन्यास चरित्रहीन है अथवा ये महाशय।और इसी सोच विचार मे मै अपने घर कि ओर चल दिया........

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